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ख़ंदगी ख़ुश लब तबस्सुम मिस्ल-ए-अरमाँ हो गए - इरफ़ान अहमद मीर कविता - Darsaal

ख़ंदगी ख़ुश लब तबस्सुम मिस्ल-ए-अरमाँ हो गए

ख़ंदगी ख़ुश लब तबस्सुम मिस्ल-ए-अरमाँ हो गए

अह्द-ए-बे-ग़म जूँ ही आया हम परेशाँ हो गए

आगे थी हम को क़राबत शब से शब को हम से थी

उन को थी ख़ल्वत से रग़बत हम शबिस्ताँ हो गए

हाए ये इज्ज़-ओ-नियाज़-ए-मय-कशाँ भी कम नहीं

आह क्या भर ली कि हम ख़ाक-ए-गुलिस्ताँ हो गए

क्या तिरी महफ़िल की है ये इर्तिजाली ऐ ख़ुदा

साँस की फ़ुर्सत न दी और अहद-ओ-पैमाँ हो गए

क्या करें शिकवा तिरी बे-ए'तिदाली से रक़ीब

वो बुलाए भी न आए आप मेहमान हो गए

याद है हम को जुनून-ए-ला-फ़ना की लग़्ज़िशें

हम में थी मौजें कभी अब दश्त-ए-वीराँ हो गए

रख लिया साक़ी ने मेरी ख़स्तगी का ये भरम

शैख़ की मज्लिस में हम पस्ती का सामाँ हो गए

तेरे काकुल की दराज़ी हो कि ज़ुल्फ़ों का सितम

हम ने आँखें उन से मूँदीं भी तो ज़िंदाँ हो गए

तेरी क़ामत पर फ़िदा हो क्या कि लब पर इफ़्तिख़ार

तेरी अंगुश्त-ए-हिनाई पर ही क़ुर्बां हो गए

आह वो बालिग़ तिरा मशहूर फ़हवा-ए-कलाम

बुलबुलों ने हम को देखा कल तो हैराँ हो गए

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