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हम उस के सामने हुस्न-ओ-जमाल क्या रखते - इरम ज़ेहरा कविता - Darsaal

हम उस के सामने हुस्न-ओ-जमाल क्या रखते

हम उस के सामने हुस्न-ओ-जमाल क्या रखते

जो बे-मिसाल है उस की मिसाल क्या रखते

जो बेवफ़ाई को अपना हुनर समझता है

हम उस के आगे वफ़ा का सवाल क्या रखते

हमारा दिल किसी जागीर से नहीं अर्ज़ां

हम उस के सामने माल-ओ-मनाल क्या रखते

उसे तो रिश्ते निभाने की आरज़ू ही नहीं

फिर उस की एक निशानी सँभाल क्या रखते

जो दिल पे चोट लगाने में ख़ूब माहिर है

हम उस के सामने अपना कमाल क्या रखते

हमारे ज़र्फ़ का लोगों ने इम्तिहान लिया

ज़रा सी बात का दिल में मलाल क्या रखते

जो अपने दिल से 'इरम' को निकाल बैठा है

हम उस के सामने हिज्र-ओ-विसाल क्या रखते

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