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हम बाग़-ए-तमन्ना में दिन अपने गुज़ार आए - इरम लखनवी कविता - Darsaal

हम बाग़-ए-तमन्ना में दिन अपने गुज़ार आए

हम बाग़-ए-तमन्ना में दिन अपने गुज़ार आए

आए न बहार आख़िर शायद न बहार आए

रंग उन के तलव्वुन का छाया रहा महफ़िल पर

कुछ सीना-फ़िगार उठ्ठे कुछ सीना-फ़िगार आए

फ़ितरत ही मोहब्बत की दुनिया से निराली है

हो दर्द सिवा जितना उतना ही क़रार आए

क्या हुस्न-ए-तबीअ'त है क्या इश्क़ की ज़ीनत है

दिल मिट के क़रार आए रंग उड़ के निखार आए

दर से तिरे टकराया इक ना'रा-ए-मस्ताना

बे-नाम लिए तेरा हम तुझ को पुकार आए

तस्वीर बनी देखी इक जान-ए-तमन्ना की

आँसू मिरी आँखों में क्या सिलसिला-वार आए

कुछ उन से न कहना ही थी फ़त्ह मोहब्बत की

जीती हुई बाज़ी को हम जान के हार आए

इस दर्जा वो प्यारे हैं कहते ही नहीं बनता

क्या और कहा जाए जब और भी प्यार आए

इस बज़्म में हम आख़िर पहुँचे भी तो क्या पाया

दिल ही की दबी चोटें कुछ और उभार आए

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