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मौसमों की बातों तक गुफ़्तुगू रही अपनी - इक़बाल उमर कविता - Darsaal

मौसमों की बातों तक गुफ़्तुगू रही अपनी

मौसमों की बातों तक गुफ़्तुगू रही अपनी

मैं ने कब कही अपनी तुम ने कब सुनी अपनी

ख़त्म ही नहीं होते सिलसिले सवालों के

सिलसिले सवालों के और ख़ामुशी अपनी

एक हद पे क़ाएम है घटती है न बढ़ती है

तीरगी ज़माने की और रौशनी अपनी

कुछ हसीन तस्वीरें रह गईं निगाहों में

वर्ना क्या गुज़र पाती शाम-ए-ज़िंदगी अपनी

फ़स्ल-ए-गुल के हंगामे आरज़ी तो होते हैं

यूँ नहीं गुज़र जाते जैसे ज़िंदगी अपनी

कुछ उदास लोगों ने मेरा हाल पूछा था

वर्ना कौन करता है अर्ज़ वाक़ई अपनी

इस ख़ता ने मुझ को भी शर्मसार कर डाला

शहर के रईसों से दोस्ती न थी अपनी

कुछ ख़ुशी के आँसू भी अश्क-ए-ग़म के साथ आए

अपने जैसे लोगों से जब ग़ज़ल सुनी अपनी

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