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मैं कि वक़्फ़-ए-ग़म-ए-दौराँ न हुआ था सो हुआ - इक़बाल उमर कविता - Darsaal

मैं कि वक़्फ़-ए-ग़म-ए-दौराँ न हुआ था सो हुआ

मैं कि वक़्फ़-ए-ग़म-ए-दौराँ न हुआ था सो हुआ

चाक अब तक जो गरेबाँ न हुआ था सो हुआ

पार दिल के कोई पैकाँ न हुआ था सो हुआ

यूँ कभी दर्द का दरमाँ न हुआ था सो हुआ

कोई वा'दा कोई पैमाँ न हुआ था सो हुआ

इतना नादाँ दिल-ए-नादाँ न हुआ था सो हुआ

डूबते रहते थे हर रोज़ हज़ारों सूरज

फिर भी अश्कों से चराग़ाँ न हुआ था सो हुआ

क्या कहूँ लाला-ए-पुर-ख़ूँ को कि जिस के बाइ'स

मुश्तहर जो ग़म-ए-इंसाँ न हुआ था सो हुआ

इस से पहले कि तिरी याद के बादल छाएँ

मुझ को अंदाज़ा-ए-तूफ़ाँ न हुआ था सो हुआ

है असर मेरी ही आशुफ़्ता-सरी का शायद

वो मुझे देख के हैराँ न हुआ था सो हुआ

हाए वो एक नज़र लुत्फ़-ओ-करम से जिस के

तुझ से भी जो ग़म-ए-दौराँ न हुआ था सो हुआ

शुक्रिया उन के सितम का कि यूँ ही ऐ 'इक़बाल'

आज तक मुझ पे जो एहसाँ न हुआ था सो हुआ

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