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दोस्तों में वाक़ई ये बहस भी अक्सर हुई - इक़बाल उमर कविता - Darsaal

दोस्तों में वाक़ई ये बहस भी अक्सर हुई

दोस्तों में वाक़ई ये बहस भी अक्सर हुई

हार किस के सर हुई है जीत किस के सर हुई

ज़ेहन बे-पैकर हुआ और अक़्ल बे-मंज़र हुई

दिल तो पत्थर हो चुका था आँख भी पत्थर हुई

लोग कहते हैं कि क़द्र-ए-मुश्तरक कोई नहीं

इस ख़राबे में तो सब की ज़िंदगी दूभर हुई

रोज़-ओ-शब अख़बार की ख़बरों से बहलाता हूँ जी

ये समझता हूँ कि अब तो रौशनी घर घर हुई

ज़ेहन में आने लगे फिर ना-पसंदीदा ख़याल

वो कहानी कैसे भूलें नक़्श जो दिल पर हुई

दुख-भरी आवाज़ सुनता हूँ तो होता हूँ उदास

ये ख़ता ठहरी तो मुझ से ये ख़ता अक्सर हुई

इक ज़माने से तो बस 'इक़बाल' अपनी ज़िंदगी

दर्द का बिस्तर हुई एहसास की चादर हुई

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