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ज़िंदाँ-नसीब हूँ मिरे क़ाबू में सर नहीं - इक़बाल सुहैल कविता - Darsaal

ज़िंदाँ-नसीब हूँ मिरे क़ाबू में सर नहीं

ज़िंदाँ-नसीब हूँ मिरे क़ाबू में सर नहीं

मेरा सुजूद उन के लिए मो'तबर नहीं

क्या है फ़रेब नर्गिस-ए-ग़म्माज़ अगर नहीं

बे-वज्ह तू कशाकश-ए-क़ल्ब-ओ-जिगर नहीं

तक़्सीम-ए-गुल पे बहस अनादिल में छिड़ गई

गुलज़ार लुट रहा है कुछ उस की ख़बर नहीं

लज़्ज़त-शनास-ए-ग़म को है इज़हार-ए-ग़म हराम

रोता हूँ और दामन-ए-मिज़्गाँ भी तर नहीं

मेरे सुजूद-ए-शौक़ से हो जाए बे-नियाज़

इतना बुलंद हौसला-ए-संग-ए-दर नहीं

यूँ बाग़बाँ ने हिम्मत-ए-परवाज़ छीन ली

ऐसी भरी बहार है और एक पर नहीं

तहसीन-ए-ना-शनास का भूका नहीं 'सुहैल'

मैं आबरू-फ़रोश-ए-मता-ए-हुनर नहीं

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