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ज़बानों पर नहीं अब तूर का फ़साना बरसों से - इक़बाल सुहैल कविता - Darsaal

ज़बानों पर नहीं अब तूर का फ़साना बरसों से

ज़बानों पर नहीं अब तूर का फ़साना बरसों से

तजल्ली-गाह-ए-ऐमन है दिल-ए-दीवाना बरसों से

कुछ ऐसा है फ़रेब-ए-नर्गिस-ए-मस्ताना बरसों से

कि सब भूले हुए हैं काबा ओ बुत-ख़ाना बरसों से

वो चश्म-ए-फ़ित्नागर है साक़ी-ए-मय-ख़ाना बरसों से

कि बाहम लड़ रहे हैं शीशा ओ पैमाना बरसों से

न अब मंसूर बाक़ी है न वो दार-ओ-रसन लेकिन

फ़ज़ा में गूँजता है नारा-ए-मस्ताना बरसों से

चमन के नौनिहाल इस ख़ाक में फूलें फलें क्यूँकर

यहाँ छाया हुआ है सब्ज़ा-ए-बेगाना बरसों से

ये आँखें मुद्दतों से ख़ूगर-ए-बर्क़-ए-तजल्ली हैं

नशेमन बिजलियों का है मिरा काशाना बरसों से

तिरे क़ुर्बां इधर भी एक झोंका अब्र-ए-रहमत का

जबीनों में गिरह है सज्दा-ए-शुकराना बरसों से

'सुहैल' अब किस को सज्दा कीजिए हैरत का आलम है

जबीं ख़ुद बन गई संग-ए-दर-ए-जानाना बरसों से

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