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ये इत्र बे-ज़ियाँ नहीं नसीम-ए-नौ-बहार की - इक़बाल सुहैल कविता - Darsaal

ये इत्र बे-ज़ियाँ नहीं नसीम-ए-नौ-बहार की

ये इत्र बे-ज़ियाँ नहीं नसीम-ए-नौ-बहार की

उड़ा के लाई है सबा शमीम ज़ुल्फ़-ए-यार की

बस इतनी काएनात है हयात-ए-मुस्तआर की

शबाब है हबाब का बहार है शरार की

फ़रेब-कारियाँ न पूछ जोश-ए-इंतिज़ार की

तमाम शब सुना किए सदा ख़िराम-ए-यार की

ये मुख़्तसर सी दास्ताँ है जब्र-ओ-इख़्तियार की

करिश्मा-साज़ कोई हो ख़ता गुनाहगार की

हक़ीक़त-ए-फ़रेब-ए-हुस्न आलम आश्कार की

ये इब्तिदा-ए-फ़तह है जुनून-ए-पुख़्ता-कार की

मुझे तो आँख खुलते ही क़फ़स की तीलियाँ मिलीं

मिरी बला से गर चमन में फ़स्ल है बहार की

तिरे निसार ज़ख़्म-ए-इश्क़ कुछ वो लज़्ज़तें मिलीं

बलाएँ ले रहा है दिल ख़दंग-ए-जाँ-शिकार की

रह-ए-तलब की लज़्ज़तें हैं और हिम्मत आफ़रीं

ये तल्ख़ियाँ हैं तल्ख़ियाँ शराब-ए-ख़ुश-गवार की

'सुहैल' तेरी शाइरी है या फ़ुसून-ए-सामरी

रवानियाँ हैं नज़्म में ख़िराम-ए-जू-ए-यार की

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