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उफ़ क्या मज़ा मिला सितम-ए-रोज़गार में - इक़बाल सुहैल कविता - Darsaal

उफ़ क्या मज़ा मिला सितम-ए-रोज़गार में

उफ़ क्या मज़ा मिला सितम-ए-रोज़गार में

क्या तुम छुपे थे पर्दा-ए-लैल-ओ-नहार में

सौ सज्दे एक लग़्ज़िश-ए-मस्ताना-वार में

अल्लाह क्या अदा है तिरे बादा-ख़्वार में

रोकूँ तो मौज-ए-ग़म को दिल-ए-बे-क़रार में

साग़र छलक न जाए कफ़-ए-राशा-दार में

किस से हो फिर उम्मीद कि तार-ए-नज़र मिरा

ख़ुद जा के मिल गया सफ़-ए-मिज़्गान-ए-यार में

ख़ुद हुस्न बे-नियाज़ नहीं फ़ैज़-ए-इश्क़ से

ख़ू मेरे दिल की है निगह-ए-बे-क़रार में

वो मस्त-ए-नाज़ हुस्न मैं सरशार-ए-आरज़ू

वो इख़्तियार में हैं न मैं इख़्तियार में

आशोब-ए-इज़्तिराब में खटका जो है तो ये

ग़म तेरा मिल न जाए ग़म-ए-रोज़गार में

बाक़ी रहा न कोई गिला वक़्त-ए-वापसीं

क्या कह गए वो इक निगह-ए-शर्मसार में

इक मश्क़-ए-इज़्तिराब का रक्खा है नाम इश्क़

उफ़ बेकसी कि वो भी नहीं इख़्तियार में

बज़्म-ए-सुख़न में आग लगा दी 'सुहैल' ने

क्या बिजलियाँ थीं ख़ामा-ए-जादू-निगार में

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