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पैग़ाम-ए-रिहाई दिया हर चंद क़ज़ा ने - इक़बाल सुहैल कविता - Darsaal

पैग़ाम-ए-रिहाई दिया हर चंद क़ज़ा ने

पैग़ाम-ए-रिहाई दिया हर चंद क़ज़ा ने

देखा भी न उस सम्त असीरान-ए-वफ़ा ने

कह दूँगा जो की पुर्सिश-ए-आमाल ख़ुदा ने

फ़ुर्सत ही न दी कशमकश-ए-बीम-ओ-रजा ने

है रश्क-ए-इरम वादी-ए-पुर-ख़ार-ए-मोहब्बत

शायद उसे सींचा है किसी आबला-पा ने

ये ख़ुफ़िया-नसीबी कि हुए और भी ग़ाफ़िल

नग़्मे का असर हम पे किया शोर-ए-दरा ने

ख़ाकिस्तर-ए-दिल में तो न था एक शरर भी

बेकार उसे बर्बाद किया मौज-ए-सबा ने

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