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अंजाम-ए-वफ़ा भी देख लिया अब किस लिए सर ख़म होता है - इक़बाल सुहैल कविता - Darsaal

अंजाम-ए-वफ़ा भी देख लिया अब किस लिए सर ख़म होता है

अंजाम-ए-वफ़ा भी देख लिया अब किस लिए सर ख़म होता है

नाज़ुक है मिज़ाज-ए-हुस्न बहुत सज्दे से भी बरहम होता है

मिल-जुल के ब-रंग-ए-शीर-ओ-शकर दोनों के निखरते हैं जौहर

दरियाओं के संगम से बढ़ कर तहज़ीब का संगम होता है

कुछ मा-ओ-शुमा में फ़र्क़ नहीं कुछ शाह-ओ-गदा में भेद नहीं

हम बादा-कशों की महफ़िल में हर जाम ब-कफ़ जम होता है

दीवानों के जुब्बा-ओ-दामन का उड़ता है फ़ज़ा में जो टुकड़ा

मुस्तक़बिल-ए-मिल्लत के हक़ में इक़बाल का परचम होता है

मंसूर जो होता अहल-ए-नज़र तो दा'वा-ए-बातिल क्यूँ करता

उस की तो ज़बाँ खुलती ही नहीं जो राज़ का महरम होता है

ता-चंद 'सुहैल' अफ़्सुर्दा-ए-ग़म क्या याद नहीं तारीख़-ए-हरम

ईमाँ के जहाँ पड़ते हैं क़दम पैदा वहीं ज़मज़म होता है

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