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वो मुसलसल चुप है तेरे सामने तन्हाई में - इक़बाल साजिद कविता - Darsaal

वो मुसलसल चुप है तेरे सामने तन्हाई में

वो मुसलसल चुप है तेरे सामने तन्हाई में

सोचता क्या है उतर जा बात की गहराई में

सुर्ख़-रू होने न पाया था कि पीला पड़ गया

चाँद का भी हाथ था जज़्बात की पस्पाई में

बे-लिबासी ही न बन जाए कहीं तेरा लिबास

आईने के सामने पागल न हो तन्हाई में

तू अगर फल है तो ख़ुद ही टूट कर दामन में आ

मैं न फेंकूँगा कोई पत्थर तिरी अँगनाई में

रात-भर वो अपने बिस्तर पर पड़ा रोता रहा

दूर इक आवाज़ बंजर हो गई शहनाई में

दाएरे बढ़ते गए परकार का मुँह खुल गया

वो भी दाख़िल हो गया अब सरहद-ए-रुस्वाई में

हब्स तो दिल में था लेकिन आँख तप कर रह गई

रात सारा शहर डूबा दर्द की पुरवाई में

आँख तक भी अब झपकने की मुझे फ़ुर्सत नहीं

नक़्श है दीवार पर तस्वीर है बीनाई में

लोग वापस हो गए 'साजिद' नुमाइश गाह से

और मैं खोया रहा इक महशर-ए-रानाई में

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