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वो दोस्त था तो उसी को अदू भी होना था - इक़बाल साजिद कविता - Darsaal

वो दोस्त था तो उसी को अदू भी होना था

वो दोस्त था तो उसी को अदू भी होना था

लहू पहन के मुझे सुर्ख़-रू भी होना था

सुनहरी हाथ में ताज़ा लहू की फ़स्ल न दी

कि अपने हक़ के लिए जंग-जू भी होना था

बगूला बन के समुंदर में ख़ाक उड़ाना थी

कि लहर लहर मुझे तुंद-ख़ू भी होना था

मिरे ही हर्फ़ दिखाते थे मेरी शक्ल मुझे

ये इश्तिहार मिरे रू-ब-रू भी होना था

कशिश थी फूल सी इस में तो ला-मुहाला मुझे

असीर-ए-रंग गिरफ़्तार-ए-बू भी होना था

सज़ा तो मिलना थी मुझ को बरहना लफ़्ज़ों की

ज़बाँ के साथ लबों को रफ़ू भी होना था

सफ़र का बोझ उठाने से पेशतर 'साजिद'

मिज़ाज-दान-ए-रह-ए-जुस्तुजू भी होना था

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