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साए की तरह बढ़ न कभी क़द से ज़ियादा - इक़बाल साजिद कविता - Darsaal

साए की तरह बढ़ न कभी क़द से ज़ियादा

साए की तरह बढ़ न कभी क़द से ज़ियादा

थक जाएगा भागेगा अगर हद से ज़ियादा

मुमकिन है तिरे हाथ से मिट जाएँ लकीरें

उम्मीद न रख गौहर-ए-मक़्सद से ज़ियादा

लग जाए न तुझ पर ही तिरे क़त्ल का इल्ज़ाम

बदनाम तो होता है बुरा बद से ज़ियादा

ख़्वाहिश है बड़ाई की तो अंदर से बड़ा बन

कर ज़ेहन की भी नश्व-ओ-नुमा क़द से ज़ियादा

देखूँ तो मिरे जिस्म पे शाख़ें हैं न पत्ते

सोचूँ तो घना छाँव मैं बरगद से ज़ियादा

रहने दो ख़लाओं में मिरी क़ब्र न खोदो

है प्यार मुझे ख़ाक की मसनद से ज़ियादा

आँखें तो लगी रहती हैं दरवाज़े की जानिब

मिलती है ख़ुशी अपनी ही आमद से ज़ियादा

क्या जानिए क्या बात है इक उम्र से 'साजिद'

वीरान है टूटे हुए मरक़द से ज़ियादा

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