फेंक यूँ पत्थर कि सत्ह-ए-आब भी बोझल न हो
फेंक यूँ पत्थर कि सत्ह-ए-आब भी बोझल न हो
नक़्श भी बन जाए और दरिया में भी हलचल न हो
खोल यूँ मुट्ठी कि इक जुगनू न निकले हाथ से
आँख को ऐसे झपक लम्हा कोई ओझल न हो
है सफ़र दरपेश तो परछाईं की उँगली पकड़
राह में तन्हाई के एहसास से पागल न हो
पहली सीढ़ी पे क़दम रख आख़िरी सीढ़ी पे आँख
मंज़िलों की जुस्तुजू में राएगाँ इक पल न हो
ज़ेहन ख़ाली हो गए हैं वक़्त के एहसास से
सामने वो मसअला रख जिस का कोई हल न हो
सब के ही सीनों में है फैला हुआ साँसों का हब्स
कोई शहर ऐसा नहीं जिस की फ़ज़ा बोझल न हो
लोग अक्सर अपने चेहरे पर चढ़ा लेते हैं ख़ोल
तू जिसे सोना समझता है कहीं पीतल न हो
जुस्तुजू उस पेड़ की क्यूँ हो कि जो साया न दे
हाथ उस डाली पे क्या पहुँचे कि जिस पर फल न हो
रोज़-ओ-शब लगता रहे सोचों का मेला ज़ेहन में
शोर से ख़ाली कभी एहसास का जंगल न हो
गर्म कर 'साजिद' लहू को धीमी धीमी आँच से
वक़्त से पहले तिरे जज़्बात में हलचल न हो
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