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मूँद कर आँखें तलाश-ए-बहर-ओ-बर करने लगे - इक़बाल साजिद कविता - Darsaal

मूँद कर आँखें तलाश-ए-बहर-ओ-बर करने लगे

मूँद कर आँखें तलाश-ए-बहर-ओ-बर करने लगे

लोग अपनी ज़ात के अंदर सफ़र करने लगे

माँझियों के गीत सुन कर आ गया दरिया को जोश

साहिलों पे रक़्स तेज़ी से भँवर करने लगे

बढ़ गया है इस क़दर अब सुर्ख़-रू होने का शौक़

लोग अपने ख़ून से जिस्मों को तर करने लगे

बाँध दे शाख़ों से तू मिट्टी के फल काग़ज़ के फूल

ये तक़ाज़ा राह में उजड़े शजर करने लगे

गाँव में कच्चे घरों की क़ीमतें बढ़ने लगीं

शहर से नक़्ल-ए-मकानी अहल-ए-ज़र करने लगे

जैसे हर चेहरे की आँखें सर के पीछे आ लगीं

सब के सब उल्टे ही क़दमों से सफ़र करने लगे

अब पढ़े-लिक्खे भी 'साजिद' आ के बेकारी से तंग

शब को दीवारों पे चस्पाँ पोस्टर करने लगे

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