मुझे नहीं है कोई वहम अपने बारे में
मुझे नहीं है कोई वहम अपने बारे में
भरो न हद से ज़ियादा हवा ग़ुबारे में
तमाशा ख़त्म हुआ धूप के मदारी का
सुनहरी साँप छुपे शाम के पिटारे में
जिसे मैं देख चुका उस को लोग क्यूँ देखें
न छोड़ी कोई भी बाक़ी कशिश नज़ारे में
वो बोलता था मगर लब नहीं हिलाता था
इशारा करता था जुम्बिश न थी इशारे में
तमाम लोग घरों की छतों पे आ जाएँ
बड़ी कशिश है नए चाँद के नज़ारे में
मिले मुझे भी अगर कोई शाम फ़ुर्सत की
मैं क्या हूँ कौन हूँ सोचूँगा अपने बारे में
पुरानी सम्त मुड़ेगा न कोई भी 'साजिद'
ये अहद-ए-नौ न बहेगा क़दीम धारे में
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