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हर कसी को कब भला यूँ मुस्तरद करता हूँ मैं - इक़बाल साजिद कविता - Darsaal

हर कसी को कब भला यूँ मुस्तरद करता हूँ मैं

हर कसी को कब भला यूँ मुस्तरद करता हूँ मैं

तू है ख़ुश-क़िस्मत अगर तुझ से हसद करता हूँ मैं

बुग़्ज़ भी सीने में रखता हूँ अमानत की तरह

नफ़रतें करने पे आ जाऊँ तो हद करता हूँ मैं

कोई अपने-आप को मनवाने वाला भी तो हो

मान्ने में कब कसी के रद्द-ओ-कद करता हूँ मैं

कुछ शुऊरी सतह पर कुछ ला-शुऊरी तौर पर

कार-ए-फ़िक्रो-ओ-फ़न में अब सब की मदद करता हूँ मैं

इस लिए मुझ से ख़फ़ा हैं अहल-ए-गुलशन आज-कल

रंग झुटलाता हूँ ख़ुश्बू मुस्तरद करता हूँ मैं

मेरे जज़्बों से बचाओ नेक-दिल लोगो मुझे

रोज़ ओ शब इन बद-मआशों की मदद करता हूँ मैं

दूसरों के वास्ते लिक्खा हुआ लगता है झूट

अपनी सच्चाई को अक्सर आप रद करता हूँ मैं

रंग पर आई हुई है अब जुनूँ-ख़ेज़ी मेरी

रोज़ ओ शब तौहीन-ए-अर्बाब-ए-ख़िरद करता हूँ मैं

तौक़ गर्दन में पहनता हूँ लहू की धार का

ख़ल्क़ को हैरान 'साजिद' ज़द-ब-ज़द करता हूँ मैं

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