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गड़े मर्दों ने अक्सर ज़िंदा लोगों की क़यादत की - इक़बाल साजिद कविता - Darsaal

गड़े मर्दों ने अक्सर ज़िंदा लोगों की क़यादत की

गड़े मर्दों ने अक्सर ज़िंदा लोगों की क़यादत की

मिरी राहों में भी हाइल हैं दीवारें क़दामत की

नई किरनें पुराने आसमाँ में क्यूँ जगह पाएँ

वो काफ़िर है कि जिस ने चढ़ते सूरज की इबादत की

पुरानी सीढ़ियों पर मैं नए क़दमों को क्यूँ रखूँ

गिराऊँ किस लिए छत सर पे बोसीदा इमारत की

तिरा एहसास भी होगा कभी मेरी तरह पत्थर

निकल जाएगी आईने से परछाईं नज़ाकत की

वो मेरा बुत था जिस को मैं ने अपने हाथ से तोड़ा

कि बरसों की ये मेहनत एक लम्हे में अकारत की

अगर है नाम की ख़्वाहिश तो दीवारों पे चस्पाँ कर

बना कर झूट के रंगों से तस्वीरें सदाक़त की

अभी सीनों में लहराते हैं मेरी याद के परचम

अभी तक सब्त हैं मोहरें दिलों पर बादशाहत की

अभी सब हर्फ़ ताज़ा हैं मुकरता क्यूँ है मा'नी से

स्याही ख़ुश्क भी होने नहीं पाई इबारत की

कोई मीठे फलों की आस में क्यूँ तल्ख़ दिन काटे

किसे फ़ुर्सत है 'साजिद' आज-कल सब्र-ओ-क़नाअत की

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