कोई समझाए कि क्या रंग है मयख़ाने का
आँख साक़ी की उठे नाम हो पैमाने का
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वो निगाहों को जब बदलते हैं
चश्म-ए-साक़ी मुझे हर गाम पे याद आती है
कौन जाने कि इक तबस्सुम से
गर्दिशों में भी हम रास्ता पा गए
हर मोड़ नई इक उलझन है क़दमों का सँभलना मुश्किल है
गुज़र गई जो चमन पर वो कोई क्या जाने
मिरे लबों का तबस्सुम तो सब ने देख लिया
दामन-ए-दिल है तार तार अपना