ज़मीं मदार से अपने अगर निकल जाए
ज़मीं मदार से अपने अगर निकल जाए
न जाने कौन सा मंज़र किधर निकल जाए
अब आफ़्ताब सवा-नेज़े पर उतरना है
गिरफ़्त-ए-शब से ज़रा ये सहर निकल जाए
समर गिरा के भी आँधी की ख़ू नहीं बदली
यही नहीं कि जड़ों से शजर निकल जाए
अब इतनी ज़ोर से हर घर पे दस्तकें देना
अगर जवाब न आए तो दर निकल जाए
मैं चल पड़ा हूँ तो मंज़िल भी अब मिलेगी 'नवेद'
ये रास्ता मुझे ले कर जिधर निकल जाए
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