रात भर कोई न दरवाज़ा खुला
रात भर कोई न दरवाज़ा खुला
दस्तकें देती रही पागल हवा
वक़्त भी पहचान से मुनकिर रहा
धुँद में लिपटा रहा ये आईना
कोई भी ख़्वाहिश न पूरी हो सकी
रास्ते में लुट गया ये क़ाफ़िला
वो परिंदा हूँ जिसे होते ही शाम
भूल जाए अपने घर का रास्ता
हम-सफ़र सब अजनबी होते गए
जैसे जैसे रास्ता कटता गया
हम किनारे आ लगे थक कर 'नवेद'
और दरिया उम्र भर चलता रहा
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