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नगर में रहते थे लेकिन घरों से दूर रहे - इक़बाल मिनहास कविता - Darsaal

नगर में रहते थे लेकिन घरों से दूर रहे

नगर में रहते थे लेकिन घरों से दूर रहे

अजीब लोग थे जो दिलबरों से दूर रहे

दुआएँ माँगते फिरते हैं लोग गलियों में

मता-ए-होश हमारे सरों से दूर रहे

ये लोग कीमिया-गर हैं परख न लें हम को

ये बात सोच के वो बे-ज़रों से दूर रहे

मता-ए-दर्द लुटाते रहे ज़माने में

हम अहल-ए-दर्द थे सौदागरों से दूर रहे

गिरूँ ज़मीन पे मैं टूट कर सितारा सा

मगर सुकून की ख़्वाहिश परों से दूर रहे

निकल के ख़ुद से शनासाई की नज़र ढूँडो

जो लोग घर में रहे दूसरों से दूर रहे

बदन है शीशे के मानिंद वक़्त का इक़बाल

उसे बताओ कि हम पत्थरों से दूर रहे

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