जब शाख़-ए-तमन्ना पे कोई फूल खिला है
जब शाख़-ए-तमन्ना पे कोई फूल खिला है
उम्मीद के सहराओं में तूफ़ान उठा है
तू मेरी निगाहों में जिसे ढूँढ रहा है
वो हुस्न मिरे शे'र के पर्दे में छुपा है
थम थम के चमकते रहे पलकों पे सितारे
रुक रुक के तिरे दर्द का अफ़्साना कहा है
अपने ही मुक़द्दर का कोई फूल न जागा
इक उम्र बहारों ने लहू मेरा पिया है
इस तरह से बदली है गुलिस्ताँ की हक़ीक़त
शबनम के ख़ुनुक जिस्म पे शालों की रिदा है
शायद है वही मेरी मोहब्बत का हयूला
इक साया जो चुप-चाप दरीचे में खड़ा है
तख़्लीक़ इसी से हुई नग़्मात की दुनिया
'इक़बाल' को जो ग़म तिरी ख़ुशियों से मिला है
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