ज़ीस्त तकरार-ए-नफ़स हो जैसे
ज़ीस्त तकरार-ए-नफ़स हो जैसे
सिर्फ़ जीने की हवस हो जैसे
सेहन-ए-गुलशन में भी जी डरता है
साया-ए-गुल में क़फ़स हो जैसे
तर्क-ए-उल्फ़त की क़सम खाते हैं
दिल पे इंसान का बस हो जैसे
वही रफ़्तार-ए-मह-ओ-साल हनूज़
वक़्त ख़ामोश जरस हो जैसे
मुंतज़िर यूँ भी रहे हैं 'माहिर'
एक पल लाख बरस हो जैसे
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