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चश्म-ए-ख़ाना मक़ाम-ए-दर्द का है - इक़बाल ख़ुसरो क़ादरी कविता - Darsaal

चश्म-ए-ख़ाना मक़ाम-ए-दर्द का है

चश्म-ए-ख़ाना मक़ाम-ए-दर्द का है

हर नज़ारे पे नाम दर्द का है

सरहद-ए-जाँ तलक क़लम-रौ दिल

इस से आगे निज़ाम दर्द का है

बे-तलब जुरअत-ए-हुज़ूरी क्या

अश्क अदना ग़ुलाम दर्द का है

दम-ब-ख़ुद ताब-ए-दीद ज़ोम-ए-सुख़न

ख़ामुशी से कलाम दर्द का है

रूह के ग़म-कदे पे क़हर-ए-सुकूत

असर-ए-इंतिक़ाम दर्द का है

एक धड़कन पे एक हश्र उठाएँ

चुप जो हैं एहतिराम दर्द का है

बुझ गईं वो ग़ज़ाल आँखें भी

जिन से ताबिंदा नाम दर्द का है

ख़ुश्क आँखों से ख़ुश्क दामन तक

ये सफ़र गाम गाम दर्द का है

सर-ए-मिज़्गान-ए-सुर्मगीं लर्ज़ां

ताइर-ए-ज़ेर-ए-दाम दर्द का है

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