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करें हिजरत तो ख़ाक-ए-शहर भी जुज़-दान में रख लें - इक़बाल कौसर कविता - Darsaal

करें हिजरत तो ख़ाक-ए-शहर भी जुज़-दान में रख लें

करें हिजरत तो ख़ाक-ए-शहर भी जुज़-दान में रख लें

चलें घर से तो घर क्या याद भी सामान में रख लें

हमारा क्या कि गुल को नोच कर तकरीम भी दे दें

सहीफ़े में सजा दें या किसी गुल-दान में रख लें

ज़ियान-ए-दिल ही इस बाज़ार में सूद-ए-मोहब्बत है

यहाँ है फ़ाएदा ख़ुद को अगर नुक़सान में रख लें

बहुत तरसी है दुनिया तेरे हश्र-ए-रू-नुमाई को

बता अब ये तलब हम और किस इम्कान में रख लें

हमारा कुफ़्र ये है हर्फ़ आता हो जहाँ तुझ पर

हमीं तो हैं जो तेरी आबरू ईमान में रख लें

अमाँ की एक ही सूरत है अब इस बे-यक़ीनी में

परिंद-ए-ग़ार! हम भी जान तेरी जान में रख लें

ढले जब तक न शब हम काढ़ कर इक शम्अ' की लौ से

तुलू-ए-सुब्ह का मंज़र न रौशन-दान में रख लें?

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