इक़बाल कौसर कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का इक़बाल कौसर
नाम | इक़बाल कौसर |
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अंग्रेज़ी नाम | Iqbal Kausar |
ज़ियान-ए-दिल ही इस बाज़ार में सूद-ए-मोहब्बत है
वो भी रो रो के बुझा डाला है अब आँखों ने
तिरी पहली दीद के साथ ही वो फ़ुसूँ भी था
तिरे जुज़्व जुज़्व ख़याल को रग-ए-जाँ में पूरा उतार कर
पर ले के किधर जाएँ कुछ दूर तक उड़ आएँ
मिरी ख़ाक उस ने बिखेर दी सर-ए-रह ग़ुबार बना दिया
जिस तरह लोग ख़सारे में बहुत सोचते हैं
ध्यान आया मुझे रात की तन्हा-सफ़री का
बनना था तो बनता न फ़रिश्ता न ख़ुदा मैं
अब बाँझ ज़मीनों से उम्मीद भी क्या रखना
रवाँ हूँ मैं
मुज़ाहिमतों के अहद-निगार
सुपुर्द-ए-ग़म-ज़दगान-ए-सफ़-ए-वफ़ा हुआ मैं
मिरी ख़ाक उस ने बिखेर दी सर-ए-रह ग़ुबार बना दिया
मैं दर पे तिरे दर-ब-दरी से निकल आया
करें हिजरत तो ख़ाक-ए-शहर भी जुज़-दान में रख लें
काहिश-ए-ग़म ने जिगर ख़ून किया अंदर से
कभी आइने सा भी सोचना मुझे आ गया
जो ज़ख़्म जम्अ किए आँख-भर सुनाता हूँ
जिस तरह लोग ख़सारे में बहुत सोचते हैं
'इक़बाल' यूँही कब तक हम क़ैद-ए-अना काटें
इक लौ थी मिरे ख़ून में तहलील तो ये थी
अगरचे मुझ को बे-तौक़-ओ-रसन-बस्ता नहीं छोड़ा
अभी मिरा आफ़्ताब उफ़ुक़ की हुदूद से आश्ना नहीं है