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मौज-ए-बला में रोज़ कोई डूबता रहे - इक़बाल कैफ़ी कविता - Darsaal

मौज-ए-बला में रोज़ कोई डूबता रहे

मौज-ए-बला में रोज़ कोई डूबता रहे

साहिल हर एक बार मगर देखता रहे

यारों की कश्तियाँ रहीं साहिल से बे-नियाज़

तूफ़ाँ से बे-नियाज़ अगर नाख़ुदा रहे

ख़ैरात में कभी नहीं माँगीं मोहब्बतें

हर-चंद मेरे दोस्त मुझे आज़मा रहे

जिन को नहीं थी दौलत-ए-एहसास तक नसीब

तकरीम-ए-बे-नज़र में वही देवता रहे

मैं ऐसे हुस्न-ए-ज़न को ख़ुदा मानता नहीं

आहों के एहतिजाज से जो मावरा रहे

माना कि हर तरह है तग़य्युर से बे-नियाज़

लेकिन वो हाल-ए-ग़म से तो कुछ आश्ना रहे

'कैफ़ी' ज़मीर-बाख़्ता लोगों से कब तलक

ख़ैरात-ए-एहतिराम कोई माँगता रहे

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