लब-ए-गुदाज़ पे अल्फ़ाज़-ए-सख़्त रहते हैं
लब-ए-गुदाज़ पे अल्फ़ाज़-ए-सख़्त रहते हैं
ज़बान-ए-ग़ैर के लहजे करख़्त रहते हैं
कहीं कहीं तो ग़ुलामों से भी रहे बद-तर
वो जिन के पाँव की ठोकर में तख़्त रहते हैं
रुतें बदलती हैं वक़्त एक सा नहीं रहता
तमाम उम्र न बेदार बख़्त रहते हैं
ख़िज़ाँ का दौर भी आता है एक दिन 'कैफ़ी'
सदा-बहार कहाँ तक दरख़्त रहते हैं
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