गुहर समझा था लेकिन संग निकला
गुहर समझा था लेकिन संग निकला
किसी का ज़र्फ़ कितना तंग निकला
जिसे निस्बत रही क़ौस-ए-क़ुज़ह से
हवाओं की तरह बे-रंग निकला
ग़ज़ल के रंग में मल्बूस हो कर
रुबाब-ए-दर्द से आहंग निकला
कोई भी ढंग रास आया न 'कैफ़ी'
ज़माना किस क़दर बे-ढंग निकला
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