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टुकड़े टुकड़े मिरा दामान-ए-शकेबाई है - इक़बाल हुसैन रिज़वी इक़बाल कविता - Darsaal

टुकड़े टुकड़े मिरा दामान-ए-शकेबाई है

टुकड़े टुकड़े मिरा दामान-ए-शकेबाई है

किस क़दर सब्र-शिकन आप की अंगड़ाई है

दिल ने जज़्बात-ए-मोहब्बत से ज़िया पाई है

मेरी तन्हाई भी इक अंजुमन-आराई है

अब जफ़ा से भी गुरेज़ाँ हैं वो अल्लाह अल्लाह

देखिए क्या मिरा अंजाम-ए-शकेबाई है

बिजलियाँ मेरे क़फ़स पर न कहीं टूट पड़ें

क्यूँ सबा ख़ाक नशेमन की यहाँ लाई है

बस वही बहर-ए-मोहब्बत का शनावर निकला

जिस ने तूफ़ाँ से उलझने की क़सम खाई है

शौक़ से आप ज़माने को नवाज़ें लेकिन

क्या कोई मेरी तरह आप का शैदाई है

कौन हमदर्द ज़माने में है 'इक़बाल' मगर

उन की इक याद फ़क़त मोनिस-ए-तन्हाई है

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