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पाता हूँ इज़्तिराब रुख़-ए-पुर-हिजाब में - इक़बाल हुसैन रिज़वी इक़बाल कविता - Darsaal

पाता हूँ इज़्तिराब रुख़-ए-पुर-हिजाब में

पाता हूँ इज़्तिराब रुख़-ए-पुर-हिजाब में

शायद छुपा है दिल मिरा उन की नक़ाब में

सू-ए-फ़लक वो देखें अगर पेच-ओ-ताब में

बरपा हो हश्र गहन लगे आफ़्ताब में

वो चाँदनी में रुख़ से हटा दें अगर नक़ाब

लग जाएँ चार-चाँद रुख़-ए-माहताब में

ऐ ना-ख़ुदा-ए-कश्ती-ए-दिल देख-भाल के

तूफ़ाँ छुपे न हों कहीं क़ल्ब-ए-हबाब में

सब्र-आज़मा निगाहों का सदक़ा इधर भी देख

फिर कुछ कमी सी पाता हूँ अब इज़्तिराब में

इक तुम ही आए दर्द की दुनिया बसा गए

वर्ना रहा था क्या दिल-ए-ख़ाना-ख़राब में

'इक़बाल' इन की मस्त-निगाहों का फ़ैज़ है

मेरा जहान-ए-शौक़ है डूबा शबाब में

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