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नज़र जिन की उलझ जाती है उन की ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ से - इक़बाल हुसैन रिज़वी इक़बाल कविता - Darsaal

नज़र जिन की उलझ जाती है उन की ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ से

नज़र जिन की उलझ जाती है उन की ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ से

वही बढ़ कर लिपट जाते हैं अक्सर मौज-ए-तूफ़ाँ से

अगर शरमा रहा है मेहर-ए-ताबाँ हुस्न-ए-जानाँ से

शफ़क़ भी तो ख़जिल है सुर्ख़ी-ए-ख़ून-ए-शाहीदाँ से

मिरे जोश-ए-जुनूँ को छेड़ता है किस लिए हमदम

उठेंगी आँधियाँ लाखों इशारे हैं बयाबाँ से

डुबो कर देख कश्ती-ए-तमन्ना बहर-ए-हस्ती में

उभर आएगा ख़ुद साहिल किसी नौ-ख़ेज़ तूफ़ाँ से

मुझे मरना मुबारक बस तमन्ना है तो इतनी है

बुझा दें वो चराग़-ए-ज़िंदगी ख़ुद अपने दामाँ से

सँभल कर रहरवान-ए-राह-ए-उल्फ़त सख़्त मंज़िल है

सदाएँ आ रही हैं आज तक गोर-ए-ग़रीबाँ से

हुजूम-ए-यास ही 'इक़बाल' तम्हीद-ए-मसर्रत है

ख़ुशी का बाब खुलता तो है लेकिन ग़म के उनवाँ से

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