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मिरी नज़र से जो नज़रें बचाए बैठे हैं - इक़बाल हुसैन रिज़वी इक़बाल कविता - Darsaal

मिरी नज़र से जो नज़रें बचाए बैठे हैं

मिरी नज़र से जो नज़रें बचाए बैठे हैं

ख़बर भी है उन्हें क्या गुल खिलाए बैठे हैं

हज़ार बार जले जिस से बाल-ओ-पर अपने

उसी चराग़ से हम लौ लगाए बैठे हैं

जो शाख़ शोख़ी-ए-बरक़-ए-तपाँ से है मानूस

उसी पे आज नशेमन बनाए बैठे हैं

फिर उस के वादा-ए-फ़र्दा का हो यक़ीं कैसे

हज़ार बार जिसे आज़माए बैठे हैं

शब-ए-फ़िराक़ की हम तीरगी से घबरा कर

चराग़-ए-ज़ख़्म-ए-ग़म-ए-दिल जलाए बैठे हैं

उसे हिजाब कहूँ या कहूँ पशेमानी

मिरे मज़ार पे वो सर झुकाए बैठे हैं

हम एक क़तरा-ए-क़ल्ब-ए-हज़ीं में ऐ 'इक़बाल'

ग़म-ए-हयात के तूफ़ाँ छुपाए बैठे हैं

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