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दिल-ए-मुज़्तर को हम कुछ इस तरह समझाए जाते हैं - इक़बाल हुसैन रिज़वी इक़बाल कविता - Darsaal

दिल-ए-मुज़्तर को हम कुछ इस तरह समझाए जाते हैं

दिल-ए-मुज़्तर को हम कुछ इस तरह समझाए जाते हैं

कि वो बस आ रहे हैं आ ही पहुँचे आए जाते हैं

निगाह-ए-शौक़ के पर्वर्दा नज़्ज़ारों की महफ़िल में

ये दिल बहले न बहले हाँ मगर बहलाए जाते हैं

ब-ज़ाहिर तो बहुत नाज़ुक हैं दिल अहल-ए-मोहब्बत के

यही शीशे कभी पत्थर से भी टकराए जाते हैं

हँसा करते थे सुन कर दास्तान-ए-क़ैस बचपन में

जवाँ हो कर इसी क़िस्सा को हम दोहराए जाते हैं

वो दुज़्दीदा निगाहें हों कि ख़ंजर-आज़मा अबरू

मोहब्बत की हर इक मंज़िल पे रहज़न पाए जाते हैं

भरी महफ़िल में सब से हैं मुख़ातब बे-हिजाबाना

मगर बस एक हम हैं जिन से वो शरमाए जाते हैं

ख़याल-ए-उजरत-ए-मौहूम पर 'इक़बाल' दुनिया में

ये हम से ज़िंदगी के बोझ क्यूँ उठवाए जाते हैं

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