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आँखों को इंतिशार है दिल बे-क़रार है - इक़बाल हुसैन रिज़वी इक़बाल कविता - Darsaal

आँखों को इंतिशार है दिल बे-क़रार है

आँखों को इंतिशार है दिल बे-क़रार है

ऐ आने वाले आक़ा तिरा इंतिज़ार है

बालीं पे वक़्त-ए-नज़अ' कोई शर्मसार है

ऐ ज़िंदगी पलट कि तिरा इंतिज़ार है

अल्लाह री ये नज़ाकत-ए-यक-जल्वा-ए-निगाह

ख़ुद उन का हुस्न उन की तबीअ'त पे बार है

जीने पे इख़्तियार न मरने पे इख़्तियार

सदक़े इस इख़्तियार के क्या इख़्तियार है

क़िस्मत जुदा सही प हक़ीक़त तो एक है

जो शम-ए-बज़्म है वही शम-ए-मज़ार है

तुम दूर हो तो लाख बहारें भी हैं ख़िज़ाँ

तुम पास हो अगर तो ख़िज़ाँ भी बहार है

इक़बाल आज शहर-ए-निगाराँ में मेरा दिल

इस पर निसार है कभी उस पर निसार है

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