वही कैफ़िय्यत-ए-चश्म-ओ-दिल-ओ-जाँ है 'इक़बाल'
न कोई रब्त बना और न रिश्ता टूटा
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बुझ गई दिल की किरन आईना-ए-जाँ टूटा
क़यामत से बहुत पहले क़यामत क्यूँ न हो बरपा
समुंदर के किनारे इक समुंदर आदमियों का
जो तेरे दर्द हैं वही सब मेरे दर्द हैं
मर्ग-ए-गुल से पेशतर
खोए गए तो आइने को मो'तबर किया
ये ख़ुश्क लब ये पाँव के छाले ये सर की धूल