समुंदर के किनारे इक समुंदर आदमियों का
समुंदर के किनारे इक समुंदर आदमियों का
हमारे शहर में रहता है लश्कर आदमियों का
वही सीना-फ़िगारी है वही बे-ए'तिबारी है
बदलता ही नहीं है याँ मुक़द्दर आदमियों का
ज़मीं से आसमाँ तक छा रही है ख़ून की सुर्ख़ी
छुपा है ख़ैर के पर्दे में भी शर आदमियों का
क़यामत से बहुत पहले क़यामत क्यूँ न हो बरपा
झुका है आदमी के सामने सर आदमियों का
फ़क़त चेहरे ही अब गर्द-ए-कुदूरत से नहीं धुँदले
दिलों का आइना भी है मुकद्दर आदमियों का
ज़मीं यूँही रही गर बे-गुनाहों के लहू से तर
हवा हो जाएगा इक दिन समुंदर आदमियों का
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