बुझ गई दिल की किरन आईना-ए-जाँ टूटा
बुझ गई दिल की किरन आईना-ए-जाँ टूटा
पर-ए-पर्वाज़ समेटे तो लहू सा फूटा
रस्म-ए-आशुफ़्ता-सरी में हैं गरेबाँ दामन
फ़लक-ए-पीर बता कौन है सच्चा झूटा
चाँद सूरज हुए जाते हैं धुएँ में रू-पोश
जरस-ए-वक़्त कहाँ आग का चश्मा फूटा
मर्सियों और क़सीदों से भरी है महफ़िल
शहर-आशोब से हर रिश्ता-ए-दानिश टूटा
शजर-ए-दर्द की हर शाख़ है कश्कोल-नुमा
सर-कशीदा है मगर बाग़ का बूटा बूटा
वही कैफ़िय्यत-ए-चश्म-ओ-दिल-ओ-जाँ है 'इक़बाल'
न कोई रब्त बना और न रिश्ता टूटा
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