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सब समझते हैं कि हम किस कारवाँ के लोग हैं - इक़बाल अज़ीम कविता - Darsaal

सब समझते हैं कि हम किस कारवाँ के लोग हैं

सब समझते हैं कि हम किस कारवाँ के लोग हैं

फिर भी पूछा जा रहा है हम कहाँ के लोग हैं

मिल्लत-ए-बैज़ा ने ये सीखा है सद-हा साल में

ये यहाँ के लोग हैं और वो वहाँ के लोग हैं

ख़ाली पैमाने लिए बैठे हैं रिंदान-ए-किराम

मय-कदा उन का है जो पीर-ए-मुग़ाँ के लोग हैं

इन से मत पूछो कि मंज़िल तुम से क्यूँ छीनी गई

इन को मत छेड़ो ये मीर-ए-कारवाँ के लोग हैं

गुल-फ़रोशी से उन्हें हम रोकने वाले हैं कौन

हम चमन के लोग हैं वो बाग़बाँ के लोग हैं

अपने दुश्मन से हमें 'इक़बाल' कोई डर नहीं

उन से बे-शक ख़ौफ़ है जो दरमियाँ के लोग हैं

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