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नक़्श माज़ी के जो बाक़ी हैं मिटा मत देना - इक़बाल अज़ीम कविता - Darsaal

नक़्श माज़ी के जो बाक़ी हैं मिटा मत देना

नक़्श माज़ी के जो बाक़ी हैं मिटा मत देना

ये बुज़ुर्गों की अमानत है गँवा मत देना

वो जो रज़्ज़ाक़-ए-हक़ीक़ी है उसी से माँगो

रिज़्क़ बर-हक़ है कहीं और सदा मत देना

भीक माँगो भी तो बच्चों से छुपा कर माँगो

तुम भिकारी हो कहीं उन को बता मत देना

सुब्ह-ए-सादिक़ में बहुत देर नहीं है लेकिन

कहीं उजलत में चराग़ों को बुझा मत देना

मैं ने जो कुछ भी कहा सिर्फ़ मोहब्बत में कहा

मुझ को इस जुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा मत देना

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