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माना कि ज़िंदगी से हमें कुछ मिला भी है - इक़बाल अज़ीम कविता - Darsaal

माना कि ज़िंदगी से हमें कुछ मिला भी है

माना कि ज़िंदगी से हमें कुछ मिला भी है

इस ज़िंदगी को हम ने बहुत कुछ दिया भी है

महसूस हो रहा है कि तन्हा नहीं हूँ मैं

शायद कहीं क़रीब कोई दूसरा भी है

क़ातिल ने किस सफ़ाई से धोई है आस्तीं

उस को ख़बर नहीं कि लहू बोलता भी है

ग़र्क़ाब कर दिया था हमें ना-ख़ुदाओं ने

वो तो कहो कि एक हमारा ख़ुदा भी है

हो तो रही है कोशिश-ए-आराइश-ए-चमन

लेकिन चमन ग़रीब में अब कुछ रहा भी है

ऐ क़ाफ़िले के लोगो ज़रा जागते रहो

सुनते हैं क़ाफ़िले में कोई रहनुमा भी है

हम फिर भी अपने चेहरे न देखें तो क्या इलाज

आँखें भी हैं चराग़ भी है आइना भी है

'इक़बाल' शुक्र भेजो कि तुम दीदा-वर नहीं

दीदा-वरों को आज कोई पूछता भी है

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