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कुछ ऐसे ज़ख़्म भी दर-पर्दा हम ने खाए हैं - इक़बाल अज़ीम कविता - Darsaal

कुछ ऐसे ज़ख़्म भी दर-पर्दा हम ने खाए हैं

कुछ ऐसे ज़ख़्म भी दर-पर्दा हम ने खाए हैं

जो हम ने अपने रफ़ीक़ों से भी छुपाए हैं

ये क्या बताएँ कि हम क्या गँवा के आए हैं

बस इक ज़मीर ब-मुश्किल बचा के लाए हैं

अब आ गए हैं तो प्यासे न जाएँगे साक़ी

कुछ आज सोच के हम मय-कदे में आए हैं

कोई हवाओं से कह दो इधर का रुख़ न करे

चराग़ हम ने समझ-बूझ कर जलाए हैं

जहाँ कहीं भी सदा दी यही जवाब मिला

ये कौन लोग हैं पूछो कहाँ से आए हैं

चमन में देखिए अब के हवा किधर की चले

ख़िज़ाँ-नसीबों ने फिर आशियाँ बनाए हैं

सफ़र पे निकले हैं हम पूरे एहतिमाम के साथ

हम अपने घर से कफ़न साथ ले के आए हैं

उन्हें पराए चराग़ों से क्या ग़रज़ 'इक़बाल'

जो अपने घर के दिए ख़ुद बुझा के आए हैं

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