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बर्ग ठहरे न जब समर ठहरे - इक़बाल अासिफ़ कविता - Darsaal

बर्ग ठहरे न जब समर ठहरे

बर्ग ठहरे न जब समर ठहरे

ऐसे मौसम पे क्या नज़र ठहरे

अहद-ए-कम-माया की निगाहों में

काग़ज़ी फूल मो'तबर ठहरे

जिन को दा'वा था बे-करानी का

वो समुंदर भी बूँद-भर ठहरे

वो गया भी तो उस की यादों के

कितने मेहमान मेरे घर ठहरे

कोई अपने लिए भी ठहरेगा

हम किसी के लिए अगर ठहरे

हम खरे थे दमक उठे वर्ना

किस में हिम्मत कि आग पर ठहरे

मौत है जुस्तुजू मुसाफ़िर की

एक लम्हा जो बे-ख़बर ठहरे

पूछ उन से है सख़्त-जानी क्या

आँधियों में भी जो शजर ठहरे

ख़ुश हो दुनिया कि हम तिरी ख़ातिर

बज़्म-ए-याराँ में बे-हुनर ठहरे

जिन से 'आसिफ़' हमें तवक़्क़ो' थी

राब्ते वो भी मुख़्तसर ठहरे

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