'अशहर' बहुत सी पत्तियाँ शाख़ों से छिन गईं
तफ़्सीर क्या करें कि हवा तेज़ अब भी है
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सभी अपने नज़र आते हैं ब-ज़ाहिर लेकिन
तुम्हारी ख़ुश्बू थी हम-सफ़र तो हमारा लहजा ही दूसरा था
प्यास दरिया की निगाहों से छुपा रक्खी है
कभी कसक जुदाई की कभी महक विसाल की
तमाशाई बने रहिए तमाशा देखते रहिए
आरज़ू है सूरज को आइना दिखाने की
प्यास के बेदार होने का कोई रस्ता न था
वैसे भी उस से कोई रब्त न रक्खा मैं ने
वो किसी को याद कर के मुस्कुराया था उधर
किसी को खो के पा लिया किसी को पा के खो दिया
वही तो मरकज़ी किरदार है कहानी का
न जाने कितने चराग़ों को मिल गई शोहरत