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तुम्हारी ख़ुश्बू थी हम-सफ़र तो हमारा लहजा ही दूसरा था - इक़बाल अशहर कविता - Darsaal

तुम्हारी ख़ुश्बू थी हम-सफ़र तो हमारा लहजा ही दूसरा था

तुम्हारी ख़ुश्बू थी हम-सफ़र तो हमारा लहजा ही दूसरा था

ये अक्स भी आश्ना सा है कुछ मगर वो चेहरा ही दूसरा था

वो अध-खुली खिड़कियों का मौसम गुज़र गया तो ये राज़ जाना

इधर शनासाई तक नहीं थी उधर तक़ाज़ा ही दूसरा था

गुलाब खिलते थे चाहतों के चराग़ जलते थे आहटों के

जहाँ बरसती हैं वहशतें अब कभी वो रस्ता ही दूसरा था

कभी न कहता था दिल हमारा कि आँसुओं को लिखें सितारा

जुदाइयों की कसक से पहले ये इस्तिआरा ही दूसरा था

उदास लफ़्ज़ों के रास्ते में ये रौशनी की लकीर कब थी

मोहब्बतों के सफ़र से पहले ग़ज़ल का लहजा ही दूसरा था

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