रात का पिछ्ला पहर कैसी निशानी दे गया
रात का पिछ्ला पहर कैसी निशानी दे गया
मुंजमिद आँखों के दरिया को रवानी दे गया
मैं सदाक़त का अलम-बरदार समझा था जिसे
वो भी जब रुख़्सत हुआ तो इक कहानी दे गया
पहले अपना तज्ज़िया करने पे उकसाया मुझे
फिर नतीजा-ख़ेज़ियों को बे-ज़बानी दे गया
क्यूँ उजालों की नवाज़िश हो रही है हर तरफ़
क्या कोई बुझते चराग़ों को जवानी दे गया
क्यूँ न इस आवारा बादल को दुआएँ दीजिए
जो समुंदर को ख़लिश सहरा को पानी दे गया
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