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ख़िज़ाँ का क़र्ज़ तो इक इक दरख़्त पर है यहाँ - इक़बाल अशहर कुरेशी कविता - Darsaal

ख़िज़ाँ का क़र्ज़ तो इक इक दरख़्त पर है यहाँ

ख़िज़ाँ का क़र्ज़ तो इक इक दरख़्त पर है यहाँ

ये और बात कि हर शाख़ बार-वर है यहाँ

जो सोच सकता है वो ज़ेहन जल रहा है अभी

जो देख सकती है वो आँख ख़ूँ में तर है यहाँ

सुनेगा कौन इन आँखों की बे-सदा फ़रियाद

समाअतों का तो अंदाज़ ही दिगर है यहाँ

सताया आज मुनासिब जगह पे बारिश ने

इसी बहाने ठहर जाएँ उस का घर है यहाँ

हिसार-ए-जिस्म से बाहर भी ज़िंदगी है मुझे

ये और बात कि एहसास मो'तबर है यहाँ

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